Wednesday, 1 April 2020

मेरे अंदर मेरा छोटा सा गांव रहता है।






ऐसा लगता है न जैसे गांव कहीं छोड़ आए ,गांव कहीं भुला आए तो ग़लत लगता है आपको, झाँक के देखिए ना अपने अंदर आपके अंदर भी आपका एक छोटा सा गांव रहता है।

बिल्क़ुल सही कहते है नीलेश मिस्रा जी हर एक इंसान जो गांव से दिल्ली,मुंबई और कलकत्ता शहर की और पलायन करता है। अच्छे रोज़गार की तलाश में अपने गांव घर को छोड़ शहर में जा बसता है हर एक व्यक्ति के भीतर उसका अपना एक छोटा सा गांव रहता है।

इस बात का एक उदाहरण या ग़वाह कह लीजिए इन्ही में से एक मैं भी हूँ, भले ही मैं शहर में हूँ किन्तु  मेरा मन मुझे मेरे गांव की और खींचता  है। कैसे भुला सकता हूँ गांव में बिताए लम्हों को उन यादों को जहां क़भी मैंने अपना क़ीमती बचपन बिताया है कैसे भुला सकता हूँ अपने अंदर के उस गांव को जहाँ क़भी दादी-नानी की गोद में बैठकर कहानियाँ  सुनी है। जहाँ क़भी दादा संग गांव के जंगलो में बैल और बकरी चराई है। जी हाँ... कैसे भुला सकता हूँ उस गांव को जहां क़भी अपने बचपन के दोस्त जीतन भैया के बेटे बाबूलाल के साथ बैशाख के महीने में नदी के उस पार जंगलों में जाके भेलवा फ़ल खाते थे और झोला भर-भर के घर लाते  थे।मेरे गांव में एक कहावत है (ठूप चिड़याँ मुंडे मांस )जिसका अर्थ भेलवा का फल होता है।

जी हाँ... कैसे भुला सकता हूँ गांव के उन लम्हों  को जहाँ क़भी ज्येष्ठ (मई-जून) के महीने में  दोस्तों के साथ भरी दुपहरिया में कुबरा दाह की नदियों में डुबकियां लगाते थे। पानी के बहाव से नदी में पसरी सूखे बालुआँ(रेत) में घंटों भर लेट कर गुनगुनी धुप सेंकते थे। और फिर देर से घर जाने पर बड़े काका से डाँट सुनते थे।

... और तो और चैत  के महीने में ही तो हम जब पेड़ से कटहल के मोची(नवज़ात कटहल )को तोड़ कर उसमे थोड़ी,प्याज एक दो हरी मिर्च और उसमे स्वादानुसार नमक़ मिलाकर जो बनाते  थे और बड़े ही शौक से जी चटपटा करते हुए खाते थे उसे हम गांव में घुमालों कहते थे जिसे शायद शहर में कोई जानता भी नहीं हो।

जेयष्ठ के महीने में ही आम के बग़िया में दिन भर पहरा देते थे कच्चे आम खाते थे उसके बड़े होने पर कच्चे आम का आचार बनाते थे। श्रावण-भाद्रपद के  महीने में मीठे काले जामुन और लाल पके ख़जूर खाने दोस्तों संग जंगलों में जाते थे। इस पेड़ से उस पेड़ बंदरों की भाँति बिना डरे छलांग लगाते थे। भाद्रपद के ताड़ वाले दिनों में जब धान की खेती हो रही होती आ समझो हो जाती तब प्रातःकाल में 4 बजे भौर उठकर ताड़ लाने नदी के उस पार जंगलो में जाते और वहीं नीम  के दांतुन से मुँह धोकर नदी किनारे पत्थर पर बैठ  ताड़ खाते थे।

और चैत के महीने में दादी और चाची के साथ महुआ बिछने(चुन्ने )रात के 3 बजे ही उठकर चले जाते थे ताकि हमारे हिस्से का महुआ कोई और न चुन ले, महुआ के पेड़ के निचे जाते ही टप-टप महुआ टपकती रहती थी। बचपन के दिनों में पलास के फूल से मीठे रस चूसते थे उससे होली के लिए  रंग तैयार करते थे।

....  हर एक लम्हा याद है मैं कुछ नहीं भुला, पेड़ के निचे बैठकर पढ़ने से लेकर रोज  8  क़िलोंमीटर की दुरी तय कर स्कूल जानें तक सब याद है।  जी हाँ... ये सिर्फ़ मैं नहीं, मेरे अंदर का बसा मेरा गांव भी कहता है। झाँक के देखिए न आप भी अपने भीतर आपके अंदर भी आपका एक छोटा सा गांव रहता है।


4 comments:

Unknown said...

Fantastic bhai bahut khub😍

Unknown said...

आभार मित्र

Rk Vikram Verma said...

दिल को झकझोर कर दिया बहुत ही प्यारी लाइन है ऋतिक भाई ऐसे ही अपने दिल की बात शेयर करते रहिए मेरा प्यार और सहयोग हमेशा तेरे साथ है एक दिन बहुत बड़े मुक़ाम में पहुँचने वाले हो तुम बस क्रमशः ऐसे ही लगे रहो।।

Ritik Kumar Verma said...

आपने साधुवाद रोहित भैया...🙏

मेरे अंदर मेरा छोटा सा गांव रहता है।

ऐसा लगता है न जैसे गांव कहीं छोड़ आए ,गांव कहीं भुला आए तो ग़लत लगता है आपको, झाँक के देखिए ना अपने अंदर आपके अंदर भी आपका...